फोटोन का इंसान की सोच से रिश्ता

फोटोन का इंसान की सोच से रिश्ता

इंसान में सृष्टि द्वारा नियंत्रित एक ऐसा कार्य व्यापार लगातार चलता है, जो उसे सोचने, समझने और किसी कार्य को अंजाम देने के काबिल बनाए रखता है। यह व्यापार प्राण शक्ति पर निर्भर है। प्राण शक्ति के खत्म होने के साथ ही यह व्यापार बंद हो जाता है। जैव विज्ञान इंसान की सोचने समझने की ताकत को हमेशा यांत्रिक दृष्टि से देखता आया है। इस ताकत की चर्चा होते ही बात दिमाग पर जाकर अटक जाती है। दिमाग के सभी अंशों के बारे में जानकारी हासिल करने के बावजूद भी जैव विज्ञान यह बता नहीं पाता कि भाव आखिर कैसे और कहाँ अनायास ही पैदा हो जाते हैं। जैसे एक छोटी-सी चींटी के सामने खड़े किसी व्यक्ति को समग्र रूप से देख पाना संभव नहीं हो पाता ठीक उसी तरह खंडों में बंटे विज्ञान और समाज से विच्छिन्न वैज्ञानिक विषयों के लिए भी मानव में कार्यरत सृष्टि के इस विराट व्यापार को समझना असंभव है।

दिलो दिमाग में किसी बात के रिस कर बस जाने की कहानी फोटोन से शुरू होती है। गौर करें कि ’मृत्यु’ शब्द लिखा हुआ देखकर हमें वैसा अहसास क्यों नहीं होता जैसा कि ’उत्सव’ शब्द को देखकर होता है? साहित्यिक भाषा में कहें तो शब्दों की आत्मा होती है और इन दोनों शब्दों की आत्मा अलग-अलग होने के कारण ये शब्द अलग अहसास पैदा करते हैं। ’वर्णों के सांचे से जुड़े फोटोन व्यक्ति की आंखों में स्थित रेटिना से टकराते हैं और उनकी शक्ति बंदूक से छूटी गोली की तरह रेटिना में स्थित प्रकाश का संधान करने वाले कोषों में विद्युत-संकेत छोड़ते हैं। दिमाग में ये संकेत लहरों की तरह प्रसारित होकर सूत से दिखने वाले एक्ज़ोन में बहते हैं। ये संकेत एक्ज़ोन के अंतिम छोर तक पहुँचकर ’सिनेपसे’ में रासायनिक न्यूरो ट्रान्समीटर को जन्म देते हैं। सिनेपसे एक्जोन के अंतिम छोर और न्यूरोन (जहाँ तक पहुँचना उस संकेत का लक्ष्य है) के बीच स्थित एक रासायनिक जंक्शन है। इस न्यूरोन को हम गंतव्य न्यूरोन कह सकते हैं। यह न्यूरॉन निजी विद्युत-संकेतों से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है जो दूसरे न्यूरॉन तक संकेत भेज देता है। कई सौ मिली सेकेण्ड के भीतर यह संकेत दिमाग के दर्जनों अंतर्संबंधित क्षेत्र से होते हुए अरबों न्यूरॉनों तक पहुँच जाता है।’
1 इस पूरी प्राकृतिक प्रक्रिया के बाद भाव और भाषा की कहानी आती है। लिखे हुए शब्द साहित्य, समाज या किसी भी क्षेत्र के हो सकते हैं। फोटोन भौतिक विज्ञान के क्षेत्र का विषय है और दिमाग में स्थित न्यूरॉन जीवविज्ञान, चिकित्साशास्त्र का विषय है। इतने कठघरों में बंटा हमारा ज्ञान भला इंसान के सोचने समझने की शक्ति का समग्र स्वरूप कैसे दिखा सकता है?

इंसान के सोचने समझने की प्रक्रिया में फोटोन की बड़ी भूमिका होती है। ’फोटोन विद्युत चुम्बकीय विकिरण की एक ऐसी मात्रा है जिसे साधारणत: प्राथमिक कण कहा जाता है।’
2 इस मात्रा का विकिरण आँखों की पकड़ में नहीं आता। लेकिन सूक्ष्म स्तर पर मौजूद रहकर यह फोटोन समूची संस्कृति को प्रभावित करने की ताकत रखता है। सृष्टि में स्थित यह ऊर्जा विद्यालयों के विज्ञान की किताबों में वर्णित ऊर्जा से एकदम अलग है। इन किताबों में उल्लेखित ऊर्जा के प्रकार वस्तुवादी हैं। अर्थात वस्तु पर किए गए प्रयोगों के आधार पर प्रस्तुत प्रकार हैं। विज्ञान को जबसे ब्रह्मांड की शक्ति से काटकर देखा जाने लगा वह वस्तुवादी स्वरूप अख्तियार करता गया। विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान। विद्यालय स्तर की किताबों में ही अगर यह विशिष्ट ज्ञान वस्तुवादी सांचे में ढालकर परोसा जाएगा तो इंसान समूचे ब्रह्मांड में सक्रिय उस ऊर्जा को कैसे समझ पाएगा जो उसके भीतर और बाहर दोनों जगह स्थित है। कुम्भ के भीतर और बाहर जल होने की बात को अगर इस बात से मिलाकर देखा जाए तो संत कबीर समाज वैज्ञानिक नज़र आते हैं।

फोटोन के इस वैज्ञानिक सत्य के आलोक में अगर देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाएगी कि अश्लील चित्र, जगह-जगह फैली गंदगी, फूहड़ गाने, शहरों में चारों ओर दिखाई देने वाले इश्तेहारों के विज्ञापन किस तरह का फोटोन पैदा कर सकते हैं। इससे इस बात का भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि फोटोन संबंधी सचेतनता का अभाव संस्कृति पर कितना भारी पड़ सकता है। दरअसल संस्कृति के निर्माण में फोटोन की बहुत बड़ी भूमिका होती है। साहित्यकार मानवता के समाज से मिटते जाने के लिए आए दिन बाजारवाद पर शाब्दिक बमबारी करते हैं और यहाँ वस्तुवाद विज्ञान की किताबों के जरिए वर्षों से भावी पीढ़ी की आँखों में ऐसी पट्टी बाँधता जा रहा है कि उसे अपने भीतर और पूरे ब्रह्मांड में फैली वह ऊर्जा ही नहीं दिखती जो हर पल उसे प्रभावित ही नहीं कर रही बल्कि उसके आचार, विचार और व्यवहार से उसके भविष्य को भी निर्धारित कर रही है। भावी पीढ़ी की सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना के नींव में अगर यह वैज्ञानिक चेतना हो तो प्रगतिशील चेतना से संपन्न नई पीढ़ी तैयार हो सकती है। शेखर जोशी की ’बदबू’ कहानी का नायक जब कहानी के अंत में हाथ से आने वाली बदबू को सूंघकर निश्चिंत होता है तब उसके भीतर का यही भाव दृढ़ता से प्रकाशित होता है कि जो गलत है उसे गलत या अशोभनीय मानने की ताकत भीतर बची रहे। जिससे हमारे भीतर की ऊर्जा उसका विरोध करने के लिए संघर्षशील रहे। वरना अशोभनीय दृश्यों या वारदातों से पैदा होने वाले फोटोन लगातार निकलकर उन्हीं हालात और दृश्यों को चुपचाप स्वीकार कर लेने वाली मानसिक स्थिति पैदा कर देते हैं। तब भीतर की ऊर्जा दब जाती है। इस ऊर्जा को जगाकर रखने के वैज्ञानिक रास्तों की तलाश आज के युग की बहुत बड़ी मांग बन गई है।

संदर्भ

1. https://engineering.mit.edu/engage/ask-an-engineer/what-are-thoughts-made-of/
2. http://www.dictionary.com/browse/photon

Add Your Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

img
[trx_call_to_action style="2" align="left" accent="yes" title="New Here?" description="Connect with me & enjoy a Stress Free Life-style." link="/contacts/" link_caption="Click Here"][/trx_call_to_action]
Kolkata, West Bengal, India
[trx_contact_form style="1" custom="no"][/trx_contact_form]