नदियों का संगम स्थल / Place of Confluence of Rivers

नदियों का संगम स्थल / Place of Confluence of Rivers

शरद् ऋतु की हवाओं में देवी दुर्गा के आगमन की गंध-सी होती है। हर बार की तरह इस बार भी दुर्गा पूजा की छुट्टियों का हमें बेसब्री से इंतजार था। इस बार पूजा की छुट्टियों को हमने प्राकृतिक ऐश्वर्य को महसूस करते हुए बिताने की बात तय की थी। ऐश्वर्यमयी बंगभूमि के गौर पंचकूट नामक स्थान के सौन्दर्य की बात अपने साथी सुमना और माधव से सुनी थी। उस आधार पर हमने पश्चिम बंगाल के वन विकास कार्पोरेशन के दफ्तर से गौर पंचकूट में रहने की बुकिंग दो महीने पहले ही करवा ली थी। लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। खास कारणों से बुकिंग रद्द करने की नौबत आ गई थी और मन किसी भी तरह इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। तभी एकाएक विशेष ख्याल ने अनुभवों की झोली में नायाब मोती भरने का दरवाजा खोल दिया। हमने सोचा कि क्यों न हम अपने भ्रमण की योजना को थोड़ा आगे खींच लाएँ। बंगाल की धरती के पहाड़ों के निर्जन सौंदर्य के बीच हम समय बिता चुके थे। अब मन बंगभूमि के नदी के किनारे बिखरे ऐश्वर्य को महसूस करना चाह रहा था। किस्मत से वन विकास कार्पोरेशन के गौरचुमुक स्थित ’वन वितान’ नामक बंगले में दुर्गा पूजा के दौरान रहने के लिए बुकिंग मिल गयी। दुर्गा पूजा के महासप्तमी, महाअष्टमी, महानवमी के दिन मानो प्रकृति ने हमें अपने आंचल में समय बिताने का निमंत्रण दिया था। शहरी दुर्गा पूजा के शोर शराबे से दूर भाग पाने का एक अलग सुकून भी हम बुकिंग पूरी करने के साथ ही महसूस करने लगे थे।
महासप्तमी का दिन था। कभी हल्की बारिश तो कभी धूप आँख मिचौनी खेल रही थी। ऐसे ही मौसम में हम गौरचुमुक के लिए रवाना हुए। अपने घर से लगभग सवा दो घंटे का सफर था। अपनी गाड़ी में जरूरत का सामान उठाकर हम चल पड़े थे। खुशमिजाज ड्राइवर कृषानु भी किस्मत से मिला था। देखते ही देखते हम गलियों के शोर शराबे वाले रास्ते को पीछे छोड़कर डनलप से नए बाली ब्रिज वाले रास्ते पर आ पहुँचे। मसृण रास्ता, रास्तों के दोनों ओर तथा बीच में खिंची सफेद लाइनों के साथ ही चारों ओर दिखने वाली हरियाली इस लम्बे ड्राइव में सौंदर्य का रंग घोल रही थी। नेशनल हाईवे छह पर चलते हुए हम उलुबेड़िया के नीम दीघी के पास से मुड़कर गौरचुमुक की दिशा में आगे बढ़ने लगे। गोरूहाटा से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित गौरचुमुक पहुँचने के रास्ते में दिखने वाले नजारों का अलग सौंदर्य था।
गौरचुमुक तक का रास्ता तय करते हुए मैंने महसूस किया कि जहाँ इंसानों का डेरा है वहाँ हरे दृश्यों की श्रृंखला भंग हो रही है। रास्तों पर छोटे बड़े प्लास्टिक के पैकट, कप, खाली बोतलें, कागज बिखरे पड़े हैं। इसी के साथ कुछ ऐसे भी इंसानों के घर दिख जहाँ हरियाली को बड़ी खूबसूरती से संजोया गया था। ऐसे बसेरों को देखकर लगा कि इंसानों के बसेरों और हरियाली का सामंजस्यपूर्ण अस्तित्व भी संभव है। बशर्ते कि लोगों को हरियाली के बीच रहने की रुचि हो। और चारों ओर हरियाली को पनपाने का कौशल मालूम हो। इस सफर में मन की एक अजीब आदत से भी मैं रूबरू हुई। एक ओर तो मन डूबने के लिए खामोश, शान्तिपूर्ण प्रकृति की गोद खोजता है और दूसरी ओर वह प्रतिदिन की जरूरतों का सामान हासिल करने लायक छोटे-मोटे बाजार से दूर रहने से विचलित भी होता है। लेकिन आखिरकार प्रकृति का ऐश्वर्य ही मन पर जीत हासिल करती है। तब छोटी-छोटी सुविधाओं के न होने का ऐहसास कहीं खो जाता है। आत्मा की एक जरूरी चाहत को प्रकृति का सौंदर्य पूरा करने लग जाता है। और हमारी झोली में अनोखे अनुभवों के मोती बरसने लगते हैं।
गंगा और दामोदर नदियों के संगम के ठीक सामने त्रिकोणाकार स्थल पर वन वितान का बंगला है। इसके बरामदे से संगम के नजारे को चुपचाप देखते रहना, सामने की जेटी से छूटते स्टीमर की सीटी और दूर नदी में मछली पकड़ती नावों को चिड़ियों की चहचहाहट को सुनते हुए निरखना एक अद्भुत अनुभव था। गौरचुमुक नाम से प्रसिद्ध यह जगह दरअसल नदी के किनारे बसे गाँव पूर्व वासुदेवपुर का अंग है। कोलकाता से 73 किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गाँव में हम अट्ठावन गेट नामक बैरेज को पार करके पहुँचे। पश्चिम बंगाल के कृषि विभाग के एक व्यक्ति से पता चला कि एक बड़े मैदान को काटकर दामोदर और गंगा के पानी का इस गाँव में संगम कराया गया है। संगम से ठीक पहले अट्ठावन लॉक गेट वाला बैरेज बना है। जो बरसात में दामोदर के तटवर्ती इलाके को बाढ़ से बचाने के लिए खोल दिया जाता है ताकि अतिरिक्त जल गंगा में बह जाए। बरसात के अलावा दूसरे मौसमों में जब दामोदर लगभग सूख जाता है तब लॉक गेट को खोलकर गंगा के पानी को दामोदर के तटवर्ती इलाके में बह जाने दिया जाता है। ताकि उन इलाकों को कृषि के लिए जल मिल सके। यहाँ से सिंचाई के लिए निकली नहरों को देखा जा सकता है। बंगभूमि के इस अंश में प्रकृति का सौंदर्य बिखरा पड़ा है।
हिरनों के बड़े झुंड को एक साथ देखने का मौका यहाँ पहली बार मिला था। हम गौरचुमुक पर्यटन केन्द्र के हिरनों के पार्क में थे। महादेवी की सोना का सौंदर्य मानो एकाएक उभरकर सामने आ गया। सुनहरा रंग, सरलता से भरी आँखें, चंचलता से भरी छलांगे इस जीव के सौंदर्य में चार चाँद लगाती है। लेकिन इंसानों को इसके सौंदर्य से कहीं ज्यादा रुचि इसकी कीमत और इसके गोश्त में होती है। सचमुच जंगल में रहने वाले इसे जानवर की तुलना में इंसान कितना अधिक जंगली है।
नदी के किनारे बसे गाँव वासुदेवपुर के लोग अधिकतर पशुपालन और मछली पकड़ने के व्यवसाय से जुड़े हैं। यहाँ से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर दुकानों से खचाखच भरा शहरी वातावरण है। शहर की संस्कृति और साधनों के कदम इस ओर बढ़ चुके हैं। लेकिन दामोदर और गंगा के संगम पर बसे इस गाँव की अनोखी स्थिति इसे शहरी संस्कृति के पैर पसारने के बावजूद शहरों के रूखेपन से बचाने की ताकत रखती है।
दो नदियों के इस संगम स्थल के सौंदर्य को प्रात:काल की सैर के दौरान हमने और गहराई से महसूस किया। महाअष्टमी के दिन नदी के उस पार से कहीं हवा के साथ तैरती हुई आ रही दुर्गा देवी की वंदना के स्वर के साथ ही दूर किसी स्टीमर के मोटर की हल्की आवाज, चिड़ियों का चहचहाना उस पर गंगा और दामोदर नदी की लहरों के नदी के किनारों पर छलक पड़ने की आवाज वातावरण में एक संगीत-सा भर रही थी। कहीं ऊँचा तो कहीं नीचा और कहीं सर्पिले मोड़ वाले काले चौड़े रास्ते पर चलते हुए दिखने वाले नजारे बेहद खूबसूरत है। यह रास्ता पूर्व वासुदेवपुर से सीधे अट्ठावन गेट तक जाता है। सड़क के दोनों ओर ऊँचे, वृक्ष, कहीं पर दूर तक दिखते हरे धान के खेत आँखों में हरियाली भर रहे थे। सड़क के दाहिने ओर वृक्षों के ठीक पीछे दामोदर नदी का बहना, उस पर कुछ ट्रोलरों का मछली के जाल और कुछ सामान लेकर बीच गंगा में जाने की तैयारी उस जगह की संस्कृति का परिचय दे रही थी। सुबह-सुबह गाँव के लोग बकरियाँ चराने नदी के किनारे आते हुए दिखे। पहाड़ी गाँवों की तरह ही यहाँ के गाँवों की यह फितरत है कि यहाँ सुबह जीवन की गतिविधियाँ बहुत जल्दी शुरू हो जाती हैं और शाम के छह बजते ही लोग घरों में सिमटने लगते हैं। यहाँ से सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित अट्ठावन गेट के बाजार वाले इलाके में भले ही नौ बजे तक चहल-पहल रहे लेकिन मुख्य रास्ते को छोड़कर गाँव में प्रवेश करने के रास्ते पर आते ही खामोशी का पहरा लगा हुआ दिखाई देता है। प्रकृति के ऐसे सौंदर्य के दान का अगर उपयुक्त प्रयोग न हो पाए तो ऐसे ही जगहों पर दुष्कर्मों को पनपने की जमीन मिल जाती है। प्रकृति का यह सौंदर्य मानव और मानवता को समृद्द करने के लिए मिला दान है। इस दान को ध्यान के केन्द्र में रखकर अगर जीवन को स्वस्थ और सुन्दर बनाने वाली गतिविधियों वाले जगहों का रूप देने की परिकल्पना की जाए तो समाज में प्रकृति का सौंदर्य घुल सकता है। प्राकृतिक सौंदर्य के इस उपहार का ऐसा प्रयोग जरूरी भी है। बंगभूमि का यह ऐश्वर्य यहाँ के लोगों को प्रकृति द्वारा दिया गया एक नायाब तोहफा है।
गौरचुमुक से बाइस किलोमीटर की दूरी पर एक और खूबसूरत जगह गादियारा स्थित है। यह जगह भागीरथी, रूपनारायण और हल्दी नदियों का संगम स्थल है। पिकनिक के लिए प्रसिद्ध इस जगह पर पहुँचकर महसूस हुआ कि यहाँ कुछ घंटों के लिए रुककर लौटने से आँखें तृप्त नहीं हो सकती। यहाँ प्रकृति के ऐश्वर्य का एक अलग रूप है। इसे समझने के लिए यहाँ अलग से दो दिन बिताना जरूरी है। यहाँ पश्चिम बंगाल पर्यटन विभाग द्वारा निर्मित रूपनारायण पर्यटन केन्द्र दर्शकों को रहने के लिए खूबसूरत परिवेश के जरिए आमंत्रित करता है। नदी के ठीक किनारे बना रास्ता और रास्ते के किनारे बने कांक्रीट के बेंच पर्यटकों को घंटों तक बैठकर इस संगम स्थल को निरखने का मौका देते हैं। गादियारा में सूरज की किरणों ने नदी के वक्षस्थल पर गिरकर इसके जल को कहीं सुनहरे आलोक से भर दिया था, तो कहीं किरणों के सीधे जल पर न पड़ने के कारण जल नीली आभा से युक्त दिखाई दे रहा था। नदी के जल के साथकिरणों का यह खेल देखकर मन तृप्त नहीं हो पाया था कि लौटने का समय हो गया। हम लांग ड्राइव करके गौरचुमुक से गादियारा पहुँचे थे। शान्तनु के लिए यह रास्ता नया था। लेकिन इस रास्ते की मसृणता और लगभग हर मोड़ पर लगे दिशा सूचक बोर्ड की वजह से यह सफर आसान, खूबसूरत और यादगार सफर रहा। अंधेरा होने से पहले हमारा वापस लौटना जरूरी था और हम लौट रहे थे। लेकिन इस संकल्प के साथ कि अगली छुट्टियाँ शुरू होते ही हम इस स्थान पर कम से कम दो दिनों के लिए जरूर आएँगे।
गौरचुमुक पहुँचने के बाद से ही गंगा नदी के स्टीमर, ट्रोलर के साथ ही सामान ढोने वाले बड़े-बड़े जहाज दिखने लगे थे। मन में रह-रह कर कुछ सवाल उठ रहे थे। नदी के उस पार कौन-सा इलाका है? ये बड़े-बड़े जहाज आखिर कहाँ से आ रहे हैं और कहाँ जा रहे हैं? स्टीमर से इस पार आने वाले यात्री आखिर किस इलाके से आ रहे हैं? कुछ दूर जाकर गंगा बल खाकर दाहिनी ओर मुड़ी हुई दिखाई दे रही थी। मुड़ने की वजह से नदी का उस पार भी दूर कहीं एक सीमा पर खत्म हुआ-सा जान पड़ रहा था। और मुड़ी हुई नदी के बायीं ओर एक और तटवर्ती इलाका दिख रहा था। रात के वक्त इसी तटवर्ती इलाके में बेहद तेज रोशनी दूर से दिखाई देती थी। दूर तक दिखाई देने वाली इस नदी के तटवर्ती इलाकों के प्रति जिज्ञासा और कौतूहल बढ़ता ही जा रहा था। इसी का असर था कि हमने स्टीमर के जरिए उस पार को देखने का निर्णय लिया। उस स्टीमर पर सिर्फ हम ही थे जो कौतूहल वश जल पथ का यह सफर तय कर रहे थे। बाकी सभी के लिए नदी के उस पार जाना दैन्यदिन का प्रयोजन था। नदी के उस पार बुरुल गाँव से रोशनी का झुरमुट दिखता था। यह बात वहाँ पहुँचकर पता चली। पूर्व वासुदेवपुर का घाट पक्का था। स्टीमर पर चढ़ने में दिक्कत नहीं हुई। लेकिन बुरुल का घाट कच्चा था। स्टीमर से घाट तक पहुँचने के लिए बाँस का लगभग 15 मीटर कच्चा सेतु बना हुआ था। सेतु से स्टीमर की ऊँचाई काफी ज्यादा थी। उसे पाटने के लिए एक लकड़ी का पट्टा स्टीमर से सेतु तक बिछा दिया गया जाता था। स्टीमर पर खड़ा एक आदमी कंधे पर बाँस लेकर सेतु पर टिका देता था। यात्री बाँस को पकड़कर लकड़ी के पट्टे पर पैर रखते हुए बाँस के सेतु तक पहुँच रहे थे। इसी तरह साइकिल, मोटरबाईक भी स्टीमर के जरिए नदी के उस पार पहुँच रहे थे। बरामदे पर बैठकर इन तटों को दूर से निरखते हुए अक्सर ऐसा लगता था कि उस पार शायद और भी कोई खूबसूरत जगह होगी। लेकिन बुरुल पहुँचकर जब हमने अपने ’वन वितान’ बंगले को दूर उस पार से देखा तो महसूस किया कि सचमुच ’वन वितान’ वाला तट यहाँ से ज्यादा खूबसूरत है। वापस लौटकर जब बरामदे से बुरुल गाँव का तटवर्ती इलाका दिख रहा था, तब पहले जैसा कौतूहल नहीं रहा। कौतूहल अगर था तो सिर्फ उन बड़े-बड़े जहाजों के संबंध में कि आखिर ये कहाँ से आते हैं और कहाँ जाते हैं? जल पथ से बुरुल तक का सफर तय करते हुए हमें रास्ते मे एक त्रिकोणाकार लोहे का ढांचा दिखा। लोगों से पता चला कि यह जहाजों के चलने के पथ की सीमा को निर्देशित करने के लिए यहाँ रखा गया है। इसका आधार मिट्टी में गड़ा हुआ है। हमारे कौतूहल ने हमें ग्राम बांग्ला के लोगों के जीवन से जुड़े एक बड़े पहलू के रूबरू होने का मौका दिया था।
देखते ही देखते दशमी का दिन आ गया था। हम घर लौटने की तैयारियों में लगे थे। सफर के दौरान अपने अनुभवों को मैं कागज के टुकड़ों पर लिखती रही थी। उन्हें पढ़ते हुए उन ताजी यादों में और ताजगी भरते हुए मैं लौटने का सफर तय कर रही थी। इस यात्रा संस्मरण में उन्हीं पन्नों में लिखे अनुभवों को पेश किया है।

Add Your Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

img
[trx_call_to_action style="2" align="left" accent="yes" title="New Here?" description="Connect with me & enjoy a Stress Free Life-style." link="/contacts/" link_caption="Click Here"][/trx_call_to_action]
Kolkata, West Bengal, India
[trx_contact_form style="1" custom="no"][/trx_contact_form]