अस्तित्व का सवाल

अस्तित्व का सवाल

अस्तित्व के लिए संघर्ष वर्तमान दौर का चर्चित मुद्दा है। दरअसल अस्तित्व के संकट का बोध ही अस्तित्व के लिए संघर्ष के मुद्दे में जान भरता है। यह संघर्ष कभी व्यक्तिगत स्तर पर तो कभी सामूहिक स्तर पर दिखाई देता है। आज धार्मिक, सामाजिक, भाषिक, सांस्कृतिक स्तरों पर अस्तित्व के लिए संघर्ष का मुद्दा मुंह बाए खड़ा दिखाई देता है। वर्तमान दौर में अस्तित्व के लिए संघर्ष पर बहुत चर्चाएँ होती हैं। लेकिन ऐसे लोग कम ही मिलते हैं जो अपने अस्तित्व या अपने आप को सही मायने में समझते हैं। आत्मस्वभाव, आत्मगुण, आत्मशक्ति, आत्मत्रुटियों की पहचान का सवाल दरअसल अस्तित्व से ही जुड़ा हुआ है।
भक्तिकाल में आत्मचेतस होने की राह दिखाने वाले साहित्य की रचना हुई थी। इस साहित्य के अनुसार इंसान की चेतना जीवात्मा है जो परमात्मा का अंश है। वह जगत में शरीर पाकर माया के बंधन में बंध जाती है। इस लिहाज से देखें तो इंसान में दो सत्ताएँ एक साथ विराजती है। एक आत्मसत्ता जिसे हम चेतना कहतें हैं और दूसरा शरीर जो चेतना से परिचालित होता है। हर इंसान की आत्मसत्ता की प्रकृति अलग-अलग होती है। एक ओर आत्मसत्ता के ज्ञान का अभाव और दूसरी ओर जीवन की अंजान परिस्थितियों में असतर्क भाव से बहते हुए इंसान अनुभवों की गठरी में बहुत कुछ जमा कर लेता है। अनुभव से ही जीवन को देखने का रवैया पनपता है। यही रवैया व्यक्ति में अस्तित्व की समझ पैदा करता है। यह समझ यदि किसी धर्म,संस्कृति, संप्रदाय या भाषा से प्रेरित हो तो वह उसकी प्रतिष्ठा करने की लड़ाई को ही अस्तित्व संघर्ष का मुद्दा मान बैठता है।
बाजारवादी संस्कृति में शिक्षा, मनोरंजन और जीवन यापन के तमाम साधन चेतना को विकृत इच्छाओं और दिखावेपन की धुरी पर घुमाते हैं। जिससे चेतना में घालमेल पैदा होता है। विज्ञापन तो आज अस्तित्व को महसूस करने के नए प्रतिमान खड़े कर रहा है। इसे मीडिया द्वारा तैयार किया गया अस्तित्वबोध कहा जा सकता है। इसका सीधा संबंध किसी वस्तु को खरीदकर अपने अस्तित्व को किसी खास उपभोक्ता वर्ग के साथ जोड़कर देखने से है। दरअसल आज अस्तित्व की सही समझ का अभाव ही बहुत बड़ा संकट है।
वक्त आज भक्तिकाल के जीव और ब्रह्म के दार्शनिक सवालों को भले ही काफी पीछे छोड़ कर आगे बढ़ गया है, लेकिन दुख की बात यह है कि तमाम अतार्किक धार्मिक रीति रिवाजों ने परंपरा के साथ बहकर आधुनिक युग में जड़े जमा ली हैं। जीव और ब्रह्म से संबन्धित आत्मचेतस होने का दर्शन तो कहीं अंधेरे मैं खो गया। बुद्धि ने वैज्ञानिकता का हाथ पकड़कर आत्मचेतस व्यक्तित्वों के निर्माण के लिए चेतना को कच्चे उम्र से ही खुराक देने के मुद्दे को पीछे धकेल दिया। समाज में बुद्धि से प्रेरित वैज्ञानिकता और आत्मविकास के दर्शन का सामंजस्यपूर्ण विकास नहीं हो पाया। आत्मविकास का मुद्दा भी अगर बुद्धिवाद की तरह चर्चा का विषय रहा होता तो वक्त के साथ आत्मविकास का दर्शन भी समाज में विकसित हो पाता। हिन्दी के कवि मुक्तिबोध द्वारा उठाया गया व्यक्तित्वांतरण का सवाल और उनकी यह पंक्तियाँ ’ मैं आत्मा के चक्के पर संकल्प शक्ति का टायर चढ़ाना चाहता हूँ। ’ इसी बात की ओर इशारा करती हैं कि आत्मविकास और नैतिक चेतना के विकास की उपेक्षा के कारण ही समाज अंधेरे में भटक रहा है ।
जीवन को सही मायने में कर्मशील बनाने के लिए अस्तित्व के प्रति सचेत होना जरूरी है। आत्मसत्ता का संबंध व्यक्ति की चेतना से है। समाज में व्यक्तियों की चेतना को अगर विकास के लिए दार्शनिक स्तर पर सही खुराक मिले तो उनमें आत्मा और बुद्धि का समुचित विकास हो सकता है। दरअसल आत्मसंकट का बोध और उसकी प्रतिष्ठा की जरूरत अस्तित्व की संकीर्ण समझ से पैदा होने वाले लक्षण हैं। जो अक्सर दिखावे और मुठभेड़ की राह पर ले जाते हैं। अस्तित्व के निर्माणकारी अवयवों को जाने बगैर इस मुठभेड़ में शामिल होना किसी अंधी गली में घुसने से कम नहीं हैं। वर्तमान दौड़ में आत्मिक और बौद्धिक स्तर पर सार्थक नागरिक तैयार करने की ज़िम्मेदारी शिक्षा को निभानी होगी। इसके लिए शिक्षा क्षेत्र में न सिर्फ भारी परिवर्तन की जरूरत है बल्कि शोध कार्यशालाओं के जरिये बुद्धि और आत्मा के सामंजस्यपूर्ण विकास के लिए युगानुरूप राहें भी खोजनी होगी।

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